UnxploreDimensions...

Wednesday, October 31, 2007

Daayre...........

दायरे दरमियाँ है बहुत
शक की सिसकियाँ सुनती हूँ बहुत
शिकवा किस से करूं जब
खुद से हारी हूँ मैं
अचानक लगता की पा लिया सभी कुछ

फिर होता बंद मुट्ठी में खाली हवा का एहसास
पंख लग जाते चाहतों के
पर कट जाते वह अनसुलझे सवालों से

इख्तियार नही मुस्तक्बिल के चेहरे पर
पर देखती हूँ आज में कहीं इमान का असर......



posted by Reetika at 10/31/2007 06:40:00 PM 1 comments

Thursday, October 25, 2007

सिर्फ एक हक................

ईस दुनिया की भीड़ में खुद को तनहा पाती हूँ,
ज़िंदगी में एक फैसला लेने का हक चाहती हूँ..........
जानती हूँ, चंद मिसरे हैं चुनने के लिए,
पर उन्ही से ज़िंदगी को बदलने का हौसला चाहती हूँ..........
हक तुम्हे पाने का,
हक टूट कर तुम्हे चाहने का...........

फैसलों की तामील हो या न हो ,
पर पल भर की बारिश से भीगना चाहती हूँ...............
शाम ओ सहर मेरी, तेरी आहट से महके
बस यह इल्तिजा खुदा से करना चाहती हूँ............
बाहों के समंदर में तेरी, बन के मौज कोई,
एक मुक़द्दस साहिल तलाशना चाहती हूँ...............
posted by Reetika at 10/25/2007 06:31:00 PM 1 comments

Wednesday, October 17, 2007

तजुर्बा तेरी मोहब्बत का...!!!

उनको ये शिक़ायत है ........
मैं बेवफाई पे नही लिखता,
और मैं सोचता हूँ की मैं उनकी रुसवाई पे नही लिखता
खुद अपने से ज्यादा बुरा, जमाने में कौन है ??
मैं इसलिए औरों की बुराई पे नही लिखता
'कुछ तो आदत से मजबूर हैं
कुछ फितरत की पसंद है ,
ज़ख्म कितने भी गहरे हों
मैं उनकी दुहाई पे नही लिखता....

दुनिया का क्या है हर हाल में, इल्जाम लगाती है,
वरना क्या बात?? की मैं कुछ अपनी सफाई पे नही लिखता

शान-ये-अमीरी पे करू कुछ अरज
मगर एक रुकावट है,
मेरे उसूलों की ........ मेरे गुनाहों की ...........

कमाई पे नही लिखता
"उसकी" ताकत का नशा

मन्त्र और कलमे में बराबर है
मेरे दोस्तों मैं मजहब की,
लड़ाई पे नही लिखता
''समंदर को परखने का मेरा, नजरिया ही अलग है यारों
मिजाजों पे लिखता हूँ मैं उसकी गहराई पे नही लिखता
''पराये दर्द को , मैं गजलों में महसूस करता हूँ ,
सच है मैं शजर से फल की, जुदाई पे नही लिखता
'तजुर्बा तेरी मोहब्बत का'
ना लिखने की वजह बस ये की
'शायर' इश्क में खुद अपनी, तबाही पे नही लिखता...!!!"
- राघवेन्द्र बाजपई

कहीं पडा इसको... और उतर गया गहरे कहीं तक....... बेहतरीन और उम्दा लिखी गयी इबारत है....

posted by Reetika at 10/17/2007 09:06:00 PM 4 comments

Monday, October 15, 2007

Hai janam ka jo yeh rishta to badalta kyun hai ?

इक ज़रा हाँथ बाधाएं तो पकड़ लें दामन,
उसके सीने में समां जाये, हमारी धड़कन...........
इतनी कुरबत है तो फिर फासला इतना क्यों है ?
तुम मस्सरत का कहो, या इसे गम का रिश्ता,
कहते हैं प्यार का रिश्ता है, जनम का रिश्ता...............
है जनम का जो येह रिश्ता तो बदलता क्यों है ?

कुछ ऐसे ही सवाल आज नज़रों के सामने से गुज़र गए, जिनके जवाब शायद सिर्फ और सिर्फ वक़्त के पास हैं. जिन्दगी ने भी अजीब रंग दिखाए हैं.... हर रोज़ एक दिन पिछले तजुर्बे पर स्याही फेर, एक नया सबक पदाती है और हमको पढना पड़ता है। सिली ज़बान के पीछे कुछ लफ्ज़ तड़पते हैं, पर इक घुटी सी उम्मीद के इंतज़ार में ऐसे ही जिए जाते है। पाकर भी कुछ हाथ में ना होने का सा एहसास है, है सब कुछ अपना फिर भी हक मिलने के दरमियान एक बड़ी दिल में चुभी फांस है। सहारों के बदौलत चद्ती बेल के मुस्त्क्बिल भी एक अनजाने दर के साए में ही जीता है, तो सोचा इनको ही हटा दें और देखें कब तक और कैसे बढती है यह बेल। और वोह भी एक ऎसी बेल जो ना फलती है ना फूलती................. बस एक अमर बेल सी चिपकी अरमानों के ख़ून से सींचती जाती है और एक दिन आखिरकार सब कुछ खतम कर देती है।
posted by Reetika at 10/15/2007 07:36:00 PM 1 comments

Wednesday, October 10, 2007

इन्तज़ार..

वक्त की झिर्रियों से रिश्ता इंतज़ार,
आंखों की सूनी पगडंडियों पर दौड़ता इंतज़ार...........
तड़प का, खलिश का,
एक उम्दा तर्जुमा यह इंतज़ार.......................
टूट कर मेरी उमीदों पर बरसता इंतज़ार,
फैलता जा रहा चाहतों की अमरबेल सा इंतज़ार....................
नमकीन कोरों से टपकता इंतज़ार,
सूखे लबों पर चटकती हँसी सा इंतज़ार............................
फिजूल के बहनों में फंसता इंतज़ार,
दिल के उल्हानों में ज़बरदस्ती आई समझ का इंतज़ार.....
बेरुखी से टूटा, अपने ही ख्यालों में खुश इंतज़ार,
सेहर की पहली नज़र से उड़ गई शबनम सा नम इंतज़ार......
चाँद पलों में सिमट गयी खुशी का इंतज़ार,
दरमियाँ हम्हारे एक चुप सा चीकता यह इंतज़ार..............
जिंदगी के रंगों में तुमको तलाशता इंतज़ार,
लम्हों में घुलते मेरे हर अरमान का इंतज़ार..............
posted by Reetika at 10/10/2007 05:29:00 PM 0 comments

Monday, October 08, 2007

This is so true.........

Until one is committed,there is hesitancy, the chance to draw back. Always ineffectiveness.
Concerning all acts of initiative (and creation),there is one elementary truth,the ignorance of which kills countless ideasAnd splendid plans: That the moment one definitely commits oneself, then Providence moves too.

All sorts of things occur to help one that would never otherwise have occurred. A whole stream of events issues from the decision raising in one's favor all manner of unforeseen incidents and meetings and material assistance,which no man could have dreamt would have come his way. I have learned a deep respect for one of Goethe's couplets:"Whatever you can do, or dream you can, begin it.Boldness has genius, power, and magic in it."

-- W.H. Murray, from The Scottish Himalayan Expedition


We come to love not by finding a perfect person, but by learning to see an imperfect person perfectly.You gain strength, courage, and confidence by every experience in which you really stop to look fear in the face. You must do the thing which you think you cannot do. You never lose by loving. You always lose by holding back.
posted by Reetika at 10/08/2007 08:28:00 PM 0 comments

Wednesday, October 03, 2007

Woh Har Baat......

बात बात में हो गयी बात,
बात से निकली, फिर रह गयी बात.........
उसने कुछ और हमने कुछ कही बात,
लफ्जों में गम हो गयी असली बात..................
होसलों के किनारे सुनहरी कर चली बात,
उम्मीद का दमन ओढ़ फिर दुल्हन बनी बात...........
अनकहे जवाबों में मेरे,
ढून्दी उसने अपने मतलब की बात,
काश-म-काश में उसके दिल की,
फिर उलझ गयी बात..................
लबों पर जो सिल गयी बात,
आंखों से फिर टपक चली बात..........
रूह में मेरे जो उतर गयी बात,
नासमझी में रुसवा हो गयी हर वह बात..........
चुनी उसने मतलब की हर बात,
असल पर जब आयी, तो बदल गयी हर बात...........
चंद लम्हों के लिए बनी, और फिर बिगड़ गयी बात............
शिकवे- शिक़ायत की बात,
रूठने - मनाने की बात,
मोह्हबत की बात, नाराज़गी की बात..................
मुस्कुरा कर जो देख लिया उसने,
ढाई अक्षर में सिमट गयी मेरी हर बात................
सुन रही हूँ उसके दिल में बसे खुदा की हर बात,
न टपकती आंखों से, अगर यह होती सिर्फ बातों की बात...



posted by Reetika at 10/03/2007 06:45:00 PM 1 comments

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