UnxploreDimensions...
Friday, November 30, 2007
Aaina !!
आँखों में भर के कुछ
उमीदों की सुनहरी लों को पकड़,
जी रही कबसे ज़िन्दगी कमबख्त !!
सपनो की चाशनी भर के दिल में,
हर रात पिया करती है
चांदनी का नूर खिलता रहा,
मन के दरीचे आबाद होते रहे,
कभी कम कभी ज्यादा .............
घुलता रहा सब कुछ, रिश्ता रहा कहीं कुछ.......
पर सहमे से एक लम्हे में,
एक बार ठहर कर जो,
ज़िन्दगी ने पूच्छा की कैसी कट रही है ?
लफ्ज़ सारे स्याह हुए
अरमान सारे तबाह हुए
नासमझी के ठन्डे लब
ज़खोम को चूमते गए, पर....
हकीकत ने पैर रख
उनमें जान फूँक दी !!
Wednesday, November 28, 2007
Bas aur nahin....
ज़मीन का कलेजा फट जाए
की अब बस....
बस और नहीं..........
आंखों के पानी से
जलने लगे है नासूर कई
की बह जाने दो उन्हें
तोड़ सारे बाँध कोई
तुम्हारे छूए का रंग लगता है
छूटेगा छूने से तुम्हारे ही कभी
खुशबू जाती नही जिस्म से क्यूंकि
हसरतों के गुंचे मुरझाये ही नही
जेहन के गलियारों में टेहेलाते फिरते
एहसान जाता-ते दिख जाते तुम अक्सर कहीं
उम्मीद की मुंडेर पर अटका
रीता मन मेरा,
फिर उलझ जाता बातों में तेरी
Monday, November 26, 2007
कोई सुनता है कहीं............
ढूँढता है मन मेरा
आंखों के नम कोरों में कहीं
दिल की गीली चादर पर कहीं
सिल जाये जो, वो निशानी
ले उम्मीदों के रंग नारंगी
हाँथ पकड़ मेरा, चल पड़े
हलके दबे सपने के पाँव्व कहीं
उड़ देती हैं खुशियों का आँचल
तेरे जज्बों की हवा खुली
सिसकियों का काफिला हो जाता गुलज़ार हसीं
बुझाते वो जो शमा अपनी ही महफिल में कहीं
Thursday, November 22, 2007
Emotional and Mental Landscapes.............
As long as I am alive, I have a purpose. Part of it means, going through the "dark night of the soul" to bring me on the other side of awareness and grief I have gone through.......... a place of authentic empowerment for myself... where in I have glown like a tainted glass with the light within, even though there was darkness outside.
Friday, November 16, 2007
एक जद्दो- जहद ............
रहेगा प्यार तेरा साथ ज़िंदगी बनकर
यह और बात ज़िंदगी मेरी वफ़ा न करे
यह ठीक है नही मरता कोई जुदाई में
खुदा किसी से किसी को मगर जुदा न करे
ज़माना देख चुका है , परख चुका है उसे
क़तील जान से जाये पर इल्तजा न करे
कभी कभी सपना लगता है , कभी यह सब अपना लगता है... तुम समझाओ मन को , क्या समझाऊं.... ? यह सुनते सुनते न जाने किस दुनिया में खो गयी...... लगा कितना सच है यह... हकीकत मेरी किस हद तक सही बयां कर गया इन लफ्जों में.... सब अपने अपने हिस्से की ज़िंदगी जीते हैं , कोई किसी दुसरे के हिस्से को नही जी सकता, चाह कर भी नही। कुछ हवाएं जब मन छूकर गुज़रती है तो कुछ बेनाम यादें साथ बहा लाती हैं । लगता है की कुछ छूट गया गया कहीं.... धुला धुला सा लगता है मन, फिर भी हसीं से गुनाहों के दाग छूट ही गए हैं उस पर कहीं न कहीं....... तकदीर किसी धुंधले से मोड़ पा रले जा कर खड़ा कर देती है और फिर इक नया सवाल पूछ्ती है की अब क्या ?? उसपर मुसीबत यह की सवाल के जवाब में सवाल ही हैं... पूछना चाहती हूँ , पर पूछूगीं नही... यह भी एक अजीब सी जिद है..... एक ज़बरदस्त कवायद है ... एक जद्दो- जहद है ..... और ज़िंदगी समझती है की इसको कोई फरक ही नही पड़ता..................... और इक भुलावे में आगे बढ़ जाती है..... और मैं, पीछे कड़ी सोचती हूँ की ग़लतफहमी में मैं खुद जी रही हूँ या यह ज़िंदगी ???
Monday, November 12, 2007
विरोधाभास
ठंडी रेत का विस्तार
फूटती आशाएं
बरसता नीर अपार
बहकता मन
कसते बन्धन विकराल
छलकता नेह
बंजर नयन वीरान
व्याकुल तन, बेबस मन
तृप्त दिखता हर अंश
विचारों का मंथन
शांत चित्त विराम
सिन्दूरी कल
धुंधले आज के यह पल