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Friday, January 04, 2008

इक और सिलसिला...

लो अब शुरू हो गया इक और सिलसिला ...
सिरा एक खतम हुआ .... की दूसरा उलझ गया ....
तेरी हंसी में घुली वो नमकीन याद
कर चली मेरे माजी को आबाद

यह पल जो मेरा हुआ करता था
दुश्वार हो चला अब काटना
बेकरारी इतनी बढ़ी की
मुस्ताक्क्बिल मेरा
बियाबान हो गया
फिर वो ही ज़िंदगी हमारी
नकाब पोश हो हम ही से गुज़र गयी
किस्मत ने क्या खूब

मेरी उलझनों का तमाशा बना दिया
posted by Reetika at 1/04/2008 12:26:00 AM

2 Comments:

yeh kya sheh hai aye dost ...yeh kaun sa mazar hai... kahan uljhi hain aapki nazren ... kiss mukaam ka intezaar hai ?

January 04, 2008 2:09 PM  

Bahoot Khub...Maashaallah ! Kya Silsila hai aapki kavitaon ka !

January 31, 2008 8:32 PM  

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