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Saturday, February 20, 2010

और इश्क बढ़ता रहा ...

हंसी एक बर्फ की चादर बन फैलती रही
उम्र नीचे सदियों से बहती रही
बूंदों से मिटटी का इश्क बढ़ता रहा
और मैं सोंधे से जिस्म को समेटे
आहटों की खलिश महसूस करती रही
खुली आँखें जज्बों का तलिस्म सजाती रही
और उम्मीद की महफ़िल में ...
सुनहरे मुस्तकब्बिल की ताबीर होती रही
सहमा सा मेरा आसमान ख़ामोशी से गूंजता रहा
और मैं बालिश्तों से ज़िन्दगी नापती रही ...
posted by Reetika at 2/20/2010 07:59:00 PM

22 Comments:

wah wah!..bahut acha laga laga aapki kavita ko padh kar :)

and thanks for dropping by :)

visit my other blog also
http://sparkledaroma.blogspot.com/

February 20, 2010 10:29 PM  

बहुत सुंदर रचना....

February 20, 2010 11:04 PM  

आहटों की खलिश महसूस करती रही
खुली आँखें जज्बों का तलिस्म सजाती रही
और उम्मीद की महफ़िल में ...
सुनहरे मुस्तकब्बिल की ताबीर होती रही
सहमा सा मेरा आसमान ख़ामोशी से गूंजता रहा
और मैं बालिश्तों से ज़िन्दगी नापती रही ...

wow........its good....

February 20, 2010 11:06 PM  

kya kahun.....shaandaar abhivyakti

February 21, 2010 1:39 AM  

@ Prerna.. Thanks for the comments

@ Mehfuz, Dr Saheb - Shukriya

@Rashmi - pehli baar aap aayi, aapka swagat hai

February 21, 2010 1:58 AM  

'खुली आँखें जज्बों का तलिस्म सजाती रही'
.....और मैं बालिश्तों से ज़िन्दगी नापती रही
Waah! Waah! Waah!!kya baat hai!

behad khubsurat !

February 21, 2010 3:52 AM  

kya bole aapne khamosh kar diya Reetika! Shabd -shabd tarpan hai

February 21, 2010 10:18 AM  

Reetika Ji,
bahut achha laga aapki rachna padh kar ke koi aur mera mitr urdu ko itne dhang se use kar raha hai...

aapke bahut bahut shukriya mere blog par aane aur tippani dene ke liye...

aate rahiyega!!

February 21, 2010 2:18 PM  

@ Shukriya Priya

@ Surendra - abhi bhi urdu ki rooh bachi hai kahin is milavati bhasha ke daur mein accha laga aapko padh kar...

February 21, 2010 2:21 PM  

reetika sabse pahle apka shukriya.
isliye nahi ki aap ne mere blog per visit kiya balki isliye kyonki apne mere blog per link diya or mujhe apki behtreen rachnayen padhane ka mouka mila. reetika kafi dinon baad kuch bahut acha padne ko mila hai isliye ek baar fir shukriya.

February 21, 2010 7:10 PM  

thnks for dropping by SOnalika

February 21, 2010 7:58 PM  

और मैं बालिश्तों से ज़िन्दगी नापती रही ...

वाह, ज़िन्दगी को ऐसे कभी नही सोचा था..कमाल का पहलू..कमाल का लेखन...

February 23, 2010 11:14 AM  

बहुत सुन्दर रचना
आभार...........

February 23, 2010 8:02 PM  

सहमा सा मेरा आसमान ख़ामोशी से गूंजता रहा
और मैं बालिश्तों से ज़िन्दगी नापती रही ...bahut khoob!

February 28, 2010 2:20 AM  

गर जिन्दगी नापने की चीज होती
गर आसमा में खामोश छाई होती
मिटटी की गोद में बूदें समायी होती
सिमटे जिस्म में आहट की खलिश होती
तो.................................
बर्फीले हुश्न के तले इश्क की नदी बह रही होती!!!

February 28, 2010 2:57 AM  

ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी...वाह.सुन्दर कवितायें बार-बार पढने पर मजबूर कर देती हैं. आपकी कवितायें उन्ही सुन्दर कविताओं में हैं.

February 28, 2010 7:30 PM  

सहमा सा मेरा आसमान ख़ामोशी से गूंजता रहा
और मैं बालिश्तों से ज़िन्दगी नापती रही . रीतिका जी, प्रेम की बहुत बेहतरीन अभिव्यक्ति बहुत कोमल शब्दों में की है आपने---अच्छी लगी आपकी यह रचना। कृपया शब्द पुष्टिकरण हटा दें तो टिप्पणी देना सुविधाजनक रहेगा।

March 04, 2010 10:57 AM  

mashaalaah

March 18, 2010 2:25 PM  

सुंदर रचना ......!!

March 24, 2010 1:54 AM  

Sabhi ka shukriya

March 31, 2010 12:58 AM  

amazing , ultimate, very creative ..... waah

April 13, 2010 5:37 PM  

नापती अच्‍छा हैं विचारों में आप। विचारों के साथ। अहसासों के करीब। मिलता सबका रकीब।

July 17, 2010 2:29 AM  

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