Saturday, April 10, 2010

एक बार फिर ...

क्यूँ आसमान का हर टुकड़ा
अपना सा लगता है
जहाँ भी लगे धरती पर झुकता
ज़िन्दगी का पूरा सच लगता है
मन के सीले अंधेरों को जगमगाती
उमीदों की चमकीली रौशनी
क्यूँ सुर्ख हो जाती सपनो की
बदरंग दुनिया अनोखी
सिर्फ इक हंसी की झड़ी
कर देती ...
एहसासों की ज़मीं गीली
इक नया अरमां होने लगता
हर पल पर काबिज़
क्यूँ हो जाता एक बार फिर से एतबार 
हो कर दिल से  आजिज़  ...

11 comments:

  1. khoob soorat...

    http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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  2. बहुत बढ़िया लिखा है.

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  3. क्यूँ हो जाता एक बार फिर से एतबार
    हो कर दिल से आजिज़ ...Ye to bahut achchi aur pyaari baat hai Reetika! aitbaar hai kyonki ummeed hai...aur ummeed hi zindgi.

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  4. जहाँ भी लगे धरती पर झुकता
    ज़िन्दगी का पूरा सच लगता है

    बहुत गहरी बात कह दी इन दो पंक्तियों में .....!!

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  5. @ Sameer - Dhanyawaad!
    @ Dileep - shukriya tareefkarne ke liye
    @ Priya - Etbaar kar ke bhi ab man bhar gaya hai..

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  6. @ Harkeerat - shayad is ek sach se hi duniya chal rahi hai..

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  7. " bahut hi badhiya lekhanne ..aapki lekhani ko salam aur is khubasurat rachana ke liye aapko dhero badhai "

    ----- eksacchai { AAWAZ }

    http://eksacchai.blogspot.com

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  8. क्यूँ आसमान का हर टुकड़ा
    अपना सा लगता है
    जहाँ भी लगे धरती पर झुकता
    ज़िन्दगी का पूरा सच लगता है
    मन के सीले अंधेरों को जगमगाती
    उमीदों की चमकीली रौशनी
    क्यूँ सुर्ख हो जाती सपनो की रीतिका जी, आपकी इस कविता में भी संवेदनाओं का प्रकृति के साथ बेहतरीन तादात्म्य स्थापित किया गया है। अच्छी लगी आपकी रचना।

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  9. बहुत गहरी बात कह दी इन दो पंक्तियों में ...

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